Wednesday, October 3, 2012

ग़मगी



शाम जब ढलने लगी 
देखते ही देखते सूरज डूबने लगा ।
आर्जूओ  के समंदर में 
धीरे धीरे समाने लगा ।।

रौशनी के ख्वाबों में था 
हकीक़त से अंजाना ।
होश जब आया मुझे 
दिल बैठ सा ज़ाने लगा ।।

आँखें मूंदी सोचा वहम हैं 
तस्सल्ली दी फिजूल ।
ऐसा नहीं हो सकता 
दिल को मनाने लगा ।।

वहम जो होता तो 
छट जाता आँखें मूंदते ही ।
हो न हो ये सच हैं 
एहसास एक सताने लगा ।।

सन्नाटें गहराते गयें 
तनहा था मैं चाँद सा ।
गुजरतें हुए हर झोंके से पूछा 
क्या सूरज का कोई ठिकाना लगा ।।

बड़ी लंबी कटी रात दर्दनाक 
छत पर गढ़ें हर एक लम्हें के निशान ।
फिर आखिर सवेरा हुआ 
सूरज झरोंखों से मुस्कुराने लगा ।।

पूछा जब कहा थे रातभर 
तो कहा यहीं था कही न गया ।
अन्धेरें के कारण तुम्ही न देख पाएं होंगे 
दलिले मेरी ही झूट्लाने लगा ।।

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