हवाओं में कुछ और बात थी।
पत्थर की रगों में दौड़ता रजत था
मेरी मुझसे ही मुलाक़ात थी॥
गर्मसी ज़मीन पर मैं रीढ़ सेकता रहा
तारों की चादर में जाने क्या देखता रहा।
बाहर शोर तो भीतर कोलाहल था
यादों की गठड़ी को दूर फेंकता रह॥
उतने में कंधों पर एक निर्जीवसा स्पर्श हुआ
मूर्दा, पाषाण, ठंडासा घर्ष हुआ।
आँखें, उसकी आहट, चीखकर गवाही देती
जीवनसे उसका ये कैसा संघर्ष हुआ॥
अनुमान मेरा सही था, इसकी न कोई ख़ुशी थी
बात विचार, विमर्श और विवेकसे बाहर जा चुकी थी।
मौन का अद्भूत संगीत, शब्द जहा अवरोध थे
क्षीण उसकी आत्मा मुझमें प्रविश्ट हो चुकी थी॥
थोड़ी देर में आँसू आये
वो पिघल रहा था।
निराशा, दरिद्र, मुदीत, अपमान
बस घूँट घूँट निगल रहा था॥
जानता मैं किसीको था जो छिपे ख़ज़ानों का अच्छा मोल देता
हो सकता हैं इस युवक कि किस्मत खोल देता।
इंद्रियों को रखकर तराज़ू में
ऐवज में शायद जीवन तोल देता॥
इंद्रियों को बेच दू, कैसी बात करते हो
इनका क्या मोल हैं, पागल हुए जाते हो।
अनमोल चीज़ तुम्हारे पास हैं
पागल मुझेही ठहरातें हो॥
------
No comments:
Post a Comment