|| प्रेम ||
प्रेम की क्या परिभाषा करें
प्रेम तो बस स्वभाव हैं |
सेतु हैं आत्मा से परमात्मा तक
जहा अहम् का अभाव हैं ||
शिल्पकार नहीं बनाता मूर्ति
करता उसे अनावृत्त हैं |
व्यर्थ पत्थर दूर किया
इश्वर तो भीतर जागृत हैं ||
प्रेम की ही अभिव्यक्ति हैं
बुद्ध, राम, माधव
मोर रिझाएँ नृत्य से
या करें शिव तांडव ||
समझ प्रेम अवरोध भक्ति का
हमने उसे ज़हर खिलाया हैं |
जीवित हैं बन ज़हरीला वो
प्रेम नहीं मिट पाया हैं ||
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